Wednesday, November 9, 2016

जब एक हुआ तब दस होते, दस हुए तो सौ की इच्छा है।

जब एक हुआ तब दस होते, दस हुए तो सौ की इच्छा है।
सौ पाकर भी तो चैन नहीं, अब सहरुा होयें तो अच्छा है।।
बस इसी तरह बढ़ते-बढ़ते राजा के पद पर पहुँचा है।
इतने पर भी सन्तोष नहीं, ऐसी यह डायन तृष्णा है।।
जब तक यह मन में तृष्णा है, तब तक सुप्रकाश नहीं होता।
आयु सब नष्ट हो जाती है, तृष्णा का नाश नहीं होता।।
अर्थः-जिसके पास एक है, वह दस चाहता है। तथा जिसे दस प्राप्त हैं, वह सौ को पाने की इच्छा करता है। जब सौ मिल जाते हैं, तब भी मन को चैन नहीं पड़ता। तब कहता है कि मेरे पास हज़ार हों तो अच्छा रहे। इसी प्रकार तृष्णा क्षण क्षण बढ़ती जाती है। तृष्णा के बढ़ते बढ़ते मन की अवस्था यह हो जाती है कि यदि मनुष्य को तीनों लोक के राजा का पद भी प्राप्त हो जाये; तब भी मन में शान्ति का उदय नहीं होता। यह तृष्णा ऐसी डायन है कि तृप्त होने में आती ही नहीं। जब तक मन में संसारी भोगों की तृष्णा का निवास है; तब तक भक्ति और सच्चाई का प्रकाश मन में हो ही नहीं सकता। इसी प्रकार तृष्णा के पंजे में फँसे रहकर मनुष्य की पूरी आयु नष्ट हो जाती है, किन्तु तृष्णा का नाश फिर भी नहीं होता। यह पूर्ववत् प्रबल बनी रहती है तथा मनुष्य को सर्वदा निन्नानवें के फेर में फिराती रहती है।

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