Wednesday, October 26, 2016

जब लग जानैं मुझ ते कछु होइ।

जब लग जानैं मुझ ते कछु होइ। तब उस कउ सुखु नाही कोइ।।
जब इह जानै मैं किछु करता। तब लगु गरभ जोनि महि फिरता।।
जब धारै कोऊ बैरी मीतु। तब लगु निहचलु नाही चीतु।।
जब लगु मोह मगन संगि माइ। तब लगु धरमराइ देई सजाई।।
प्रभ किरपा ते बंधन तूटै। गुरु प्रसादि नानक हउ छूटै।।
अर्थः-सब बंधनों का मूल ""हूँ मैं'' है। इस ""हूँ मैं'' के भ्रम-जाल में बंधा हुआ जीव जब तक यह समझता है कि मैं भी कुछ कर सकता हूँ, तब तक सुख की स्थिति कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। जब यह समझेगा कि अमुक कार्य मैने किया है, यदि मैं अमुक कार्य न करता तो वह काम हो ही न पाता, तो इस अभिमान के कारण ही उसे जन्म मरण के चक्र में भटकना पड़ता है। अपने को कर्ता मान कर जब तक किसी को मित्र और किसी को शत्रु जानेगा, तब तक उसका चित्त भी चंचल बना रहेगा और उसे सुख शान्ति प्राप्त न होगी। जब तक मोह माया में मन मग्न रहेगा तब तक धर्मराज का दण्ड भी सहना पड़ेगा। परन्तु जब सन्त सद्गुरु के सत्संग के प्रताप से उनसे नाम-रत्न की प्राप्ति हो जायेगी और भाग्यशाली जीव उस नाम की कमाई करने लगेगा, तो नाम के प्रताप से उस पर कुल मालिक की दया हो जायेगी और सब बंधन टूट जायेंगे सन्त सद्गुरु द्वारा प्रदत्त नाम में वह शक्ति है जो पल भर में पापी को पावन बना दे।

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