Wednesday, October 19, 2016

ज्ञान पंथ कृपान कै धारा।

ज्ञान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होई नहिं बारा।।
अस बिचारि हरि भगति सयाने। मुक्ति निरादर भक्ति लुभाने।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अविद्या नासा।।
उमा जोग जप दान तप, नाना व्रत मख नेम।
राम कृपा नहिं करहिं तस, जस निस्केवल प्रेम।।
पन्नगारी सुनु प्रेम सम, भजन न दूसर आन।।
यह बिचारि मुनि पुनि पुनि, करत राम गुन गान।।
अर्थः-""काकभुशुण्डी जी पक्षिराज गरुड़ को उपदेश करते हैं कि ज्ञान मार्ग तलवार की धार पर चलने जैसा है, जिससे गिरते देर नहीं लगती। यही सोच विचारकर जो सयाने भक्तजन हैं, वे मुक्ति का भी निरादर करके भक्ति की अभिलाषा करते हैं। क्योंकि प्रेमाभक्ति के द्वारा बिना किसी विशेष यत्न और परिश्रम के उस अज्ञान का नाश हो जाता है, जो जीवात्मा को संसार के बन्धन में जकड़ने का मूल कारण है।'' ""भगवान शिव पार्वती के प्रति कहते हैं, हे उमा! योग,जप, दान, तपस्या और भाँति भाँति के व्रत यज्ञ नियम आदि मिलकर भी साधक को प्रभु कृपा का वैसा अधिकारी नहीं बना सकते, जैसा कि अनन्य प्रेम बना सकता है। पुनः काकभुशुण्डी जी कहते हैं, हे गरुड़ जी! प्रेमाभक्ति जैसा अन्य भजन नहीं है। ऐसा विचारकर मुनिजन पुनः पुनः प्रभु के नाम के गीत गाते हैं।''

No comments:

Post a Comment