Sunday, September 4, 2016

कबीर मन परबत हुआ

कबीर मन  परबत हुआ, अब मैं पाया जानि।
टाँकी लागी सबद की, निकसी कंचन खानि।।
पहले यह मन काग था, करता जीवन घात।
अब तो मन हंसा भया, मोती चुगि चुगि खात।।
मन मनसा को मारि करि नन्हा करि के पीस।
तब सुख पावै सुन्दरी, पदुम झलक्कै सीस।।
मनहीं को परमोधिये, मन हीं को उपदेस।
जो यहि मन को बसि करै, सिष्य होय सब देस।।
अर्थः-""श्री कबीर साहिब जी का कथन है कि मुझे अब यह ज्ञात हुआ कि मन तो पर्वत के समान कठोर था। परन्तु जब इस पर गुरु शब्द की टाँकी से चोट लगाई गई, तो मन की चट्टान में से भक्ति परमार्थ रुपी सोने की खान निकल आई।'' ""पहले यह मन कौव्वे के समान स्वभाव वाला था अर्थात् विषय भोगों के मलिन आहार का मतवाला होकर आत्मा का घात कर रहा था। परन्तु अब तो गुरुकृपा से यह मन हंस का रुप बन गया है और परमार्थ के मोती चुन चुन कर खाता है।'' ""ऐ जीव! मन के समस्त नीच विकारों तथा वासनाओं को मार कर और बारीक करके पीस डाल। जैसे संखिया को भस्म करके पीस दिया जाता है और वह अमूल्य औषध बन जाता है।  इसी प्रकार मन को बारीक करके पीसने का अर्थ है मनोविकारों में सुधार करना। जब मन का सुधार हो जाए; तब यह अन्तर्मुख होकर परमार्थी मन बन जावेगा तथा आत्मा रुपी सुन्दरी को अपूर्व आनन्द प्राप्त होगा। वह मन की खटपट से मुक्त होकर सुखी होगी तथा उसके सिर पर सौभाग्य का कमल खिलकर जगमगाने लगेगा।'' ""मन ही को समझाने और उपदेश करने की आवश्यकता है मन ही को सुधारकर और साधकर आज्ञाकारी बनाना आवश्यक है। जो कोई इस मन को अपने वश में कर लेता है, तो समस्त संसार ही उसका शिष्य बनने को तत्पर हो जाता है।

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