Sunday, September 18, 2016

भवजल अगम अथाह

भवजल अगम अथाह, थाह नहीं मिलै ठिकाना।
सतगुरु केवट मिलै, पार घर अपना जाना।।
जग रचना जंजाल, जीव माया ने घेरा।
तलुसी लोभ मोह बस परै, करैं चौरासी फेरा।।
इन्द्री रस सुख स्वाद, बाद ले जनम बिगारा।
जिभ्या रस बस काज, पेट भया विष्ठा सारा।
टुक जीवन के काज, लाज नहिं मन में आवै।
तुलसी काल खड़ा सिर ऊपर, घड़ी घड़ियाल बजावै।।

अर्थः-""यह संसार एक सागर है। इसकी थाह पाना जीवट का काम है। कोई विरला साहसी पुरुष ही इसमें कूदकर इससे पार होने की प्रबल चेष्टा करता है। तिस पर भी अपने बल पर भला कौन पार हो सका है। जब तक सतगुरु मल्लाह को अपने जीवन की नैय्या न सौंप दी जाये, पार हो सकना असम्भव।'' ""इस अटपटे संसार की रचना को समझ लेना आसान नहीं। लोभ और मोह यहाँ ऐसे मदमत्त गजराज हैं कि जीव को अपने पाँव तले मसलकर रख देते हैं। जिस आवागमन के चक्र से छूटने के लिये जीव मानव देह में आया था, ये बरबस ही उस ऊँचाई से खींचकर नीचे गिरा देते हैं और जीव फिर उसी चौरासी के चक्र में जा पड़ता है।'' ""इन्द्रियों के रसों के स्वाद में पड़कर जीव ने अपना सारा जीवन अकारथ गँवा दिया। संसार के भाँति भाँति के स्वादिष्ट पदार्थों का रस लेने को जीभ लपलपाती है; मगर खाने के बाद वे सब पेट में गन्दगी बन जाते हैं। जीवन के वास्तविक उद्देश्य की पूर्त्ति के लिये कुछ भी जतन नहीं किया, इतने पर भी जीव को लाज नहीं आती। तुलसी साहिब का कथन है कि काल सिर पर खड़ा हर समय कूच का नक्कारा बजा रहा है और सचेत कर रहा है कि इस रहे सहे समय में अपना काम बना ले। परन्तु इन्द्रियों के रसों में गाफिल इनसान सुनता कहाँ है?''

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