Sunday, August 7, 2016

ध्यान लगावहु त्रिपुटी द्वार, गहि सुषमना बिहँगम सार।

ध्यान लगावहु त्रिपुटी द्वार, गहि सुषमना बिहँगम सार।
पैठि पाताल में पश्चिम द्वार, चढ़ि सुमेरु भव उतरहु पार।।
हफ़त कमल नीके हम बूझा, अठयें बिना एको नहिं दूजा।
"शाह फकीरा' यह सब धंद, सुरति लगाउ जहाँ वह चंद।।


अर्थः-ऐ जीव! त्रिकुटी के द्वार में अपना ध्यान लगा। सुषमना नाड़ी को पकड़कर बिहंगम चाल की सार गहनी को धारण करके। पश्चिम के द्वार से पाताल में प्रवेश कर जाओ और सुमेरु-पर्वत पर चढ़कर भवसागर के पार कर लो। हमने सात कमलों को भली-भान्ति समझ लिया है। उन सातों से आगे कोई आठवाँ नहीं है। शाह फकीर साहिब का कथन है कि संसार के धन्धे सब मिथ्या हैं। अपनी सुरति को वहाँ लगाओ, जहाँ चन्द्रमा का प्रकाश तथा उजाला है। यह सब अन्तरीव अभ्यास का इशारा है। मनुष्य के शरीर के अंदर ईड़ा-पिंगला और सुषमना तीन बड़ी नाड़ियाँ, जो नाभि देश से उठकर दिमाग की तरफ या पिण्डदेश से ब्राहृाण्ड देश को जाती है। इनमें से मुख्य सुषमना नाड़ी है, जो बीच की है। इसी के द्वारा प्राण को ऊपर चढ़ाकर त्रिकुटी में मालिक की ज्योति का ध्यान किया जाता है। जब सुरति शरीर को छोड़कर ऊपर चढ़ने लगती है, तो सात कमलों के सात स्थान है, जो उसके मार्ग में आते हैं सुरति इनको पार करती हुई और ऊपर चढ़ती हुई उस उच्चतम स्थान पर जा पुहँचती है, जिसे सुमेरु पर्वत की चोटी का नाम दिया गया है और जहाँ प्रकाश ही प्रकाश सब ओर फैला हुआ है। इसका भेद पूर्ण गुरु से प्राप्त होता है। सतगुरु की दया से ही ये मन्ज़िले तय हो सकती हैं। जिससे अन्तरीव शान्ति प्राप्त होती है।

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