Wednesday, August 3, 2016

सो दिन कैसा होयगा, गुरु गहैंगे बाँहि।

सो दिन कैसा होयगा, गुरु गहैंगे बाँहि।
अपना करि बैठावहीं, चरन कमल की छाँहि।।
बिरह कमंडल कर लिये, बैरागी दोउ नैन।
माँगैं दरस मधूकरी छके रहैं दिन रैन।।
अँखियाँ तो झार्इं परी पंथ निहार निहार।
जिभ्या तो छाला परा, नाम पुकार पुकार।।
कबीर बैद बुलाइया, पकरि के देखी बाँहि।
बैद न वेदन जानई, करक करेजे माँहि।।
जाहु बैद घर आपने तेरा किया न हो।
जिन या वेदन निर्मई, भला करैगा सोय।।
अर्थः-""वह कैसा भाग्यवन्त दिन होगा जब कि गुरुदेव मेरा हाथ अपने हाथ में थाम लेंगे और मुझे अपना जान कर अपने चरणकमलों की छाया में बिठलायेंगे?'' ""मेरे दोनों नयन वैरागियों के सदृश हैं, जो अपने हाथों में बिरह (तड़प) रुप कमण्डल लिये हुये केवल दर्शन की भिक्षा माँगती रहती हैं; जिसे पाकर वे रात-दिन तृप्त हुई रहें।'' ""प्रियतम के आने का मार्ग देखते देखते नेत्रों के गिर्द काले हलके पड़ गये हैं और उनका नाम पुकारते पुकारते जीभ पर छाले पड़ गये; किन्तु वे हैं कि अब तक नहीं आये।'' "" श्री कबीर साहिब फरमाते हैं कि हमारी ऐसी दीन दशा देखकर लोगों ने रोगग्रस्त जानकर हकीम को बुलवा लिया। हकीम ने आकर नब्ज़ देखी; किन्तु हकीम इस रोग को नहीं परख सकता, क्योंकि कसक अथवा पीड़ा तो कलेजे में है।'' ""ऐ वैद्य! अपने घर लौट जाओ। तेरे किये से कुछ भी नहीं होने का। यह रोग तो उसी के हाथ से अच्छा हो सकेगा,जिसने ये पीड़ा प्रदान की है।''

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