देह धरे का दंड है, सब काहू को होय।
ज्ञानी भुगतै ज्ञान करि, अज्ञानी भुगतै रोय।।
अर्थः-महापुरुषों ने फरमाया कि शरीर को धारण करके प्रत्येक जीव को सुख-दुःख भोगना पड़ता है, परन्तु अन्तर केवल इतना है कि विचारवान गुरुमुखजन मालिक की मौज और अपने भाग्य का लिखा समझ कर प्रसन्नतापूर्वक उन्हें सहन करते हैं जबकि आम संसारी मनुष्य दुःख के समय रोता और चीखता-चिल्लाता रहता है। इसलिये दुःखों के आने पर दुःखी मत होवो, अपितु मालिक का प्रसाद समझकर उसमें सुख मानो और हाय-हाय के स्थान पर वाह-वाह करते हुये जीवन के चार दिन प्रसन्नतापूर्वक व्यतीत कर लो। चाहे कितना भी दुःख-कष्ट अनुभव हो, तुम सदैव मालिक की मौज में प्रसन्न रहना सीखो।
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