अभिमानी चढ़ि कर गिरे, गये वासना माहिं।
चौरासी भरमत भये, कबहीं निकसैं नाहिं।।
चौरासी भरमत भये, कबहीं निकसैं नाहिं।।
अर्थः-रुप, विद्या, बल, तप कुल आदि के अभिमान में डूबे हुए पुरुष यदि कहीं ऊँची पदवी भाग्यवश पा भी जायें-तो भी उन्हें भाग्यवान न जानना। वे अभी वासनाओं के जाल में फँसे पड़े हैं। चौरासी लाख योनियाँ उनकी प्रतीक्षा कर रही हैं। वे अभागे जीव नरकों के कुण्डों में अभी डुबकियाँ खाएँगे उन्हें छुड़ाने भी कोई नहीं जायेगा। दया निधान सन्त यदि उनके कल्याण के लिये जाएँ भी तो भी वे उन्हें "न' कह देंगे। ऐसा उदण्ड होता है यह अभिमान। यह किसी के घट में पाँव जमा ले सही फिर जब तक उस जन का सर्वनाश न कर ले उसे कल नहीं पड़ती।
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