Sunday, February 14, 2016

प्रेमा-भक्ति

रैदास तू काँवच फली, तोहि न छूये कोय।
तैं निज नाम न जानिया, भला कहाँ से होय।।
जा देखैै घिन ऊपजै, नरक-कुण्ड में बास।
प्रेम भक्ति से ऊद्धरै परगट जन रैदास।।

अर्थः-सन्त रैदास जी का जन्म नीच जाति में हुआ था, इसे सब जानते हैं । वे फरमातें हैं, ऐ रैदास! तू काँवच की फली की तरह है, जिसको कोई छूता तक नहीं। (काँवच फली एक जंगली बूटी है, जिस पर देखने में सुन्दर मगर खाने में ज़हरीली फलियाँ लगती हैं। उन्हें खाना तो एक तरफ, उसे कोई छू लेता है उस पर भी ज़हर चढ़ जाता है। इसलिये लोग अधिकतर उसे छूने से परहेज़ करते हैं। दूसरा इशारा यह भी है कि अछूत जाति को छूने से भी कर्मकाण्डी लोग उसी तरह परहेज़ करते हैं जैसे कि ज़हर से) जब तूने निज नाम को नहीं जाना है, तो फिर भला भी किस तरह से हो सकता है? अर्थात् नाम के बिना भलाई और गुण कैसा? फिर फरमाते हैं कि जिस नीच को देखने तक से लोगों को घृणा उत्पन्न होती है और जिसका सदैव गंदगी और नरक में निवास रहता है; उसी नीच जाति का प्राणी प्रेमाभक्ति को पाकर पवित्र तथा पूजनीय बन जाता है। यह बात रैदास जी की मिसाल से प्रगट है।

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