अनन्य
भक्ति उपजी नहीं गुरु सों नाहीं सीर।
सहजो मिलै
न सिन्धु कूँ, ज्यौं तालाब को नीर।।
अर्थः-जिस
जीव के ह्मदय में अनन्य प्रेम भक्ति उत्पन्न नहीं हुई तथा गुरु से जिसका गहरा
सम्बन्ध अथवा प्रेम नहीं है,
सहजोबाई जी के
विचार से उसकी अवस्था तालाब के उस जल जैसी है, जो
चारदीवारी में बन्द हो जाने के कारण समुद्र तक नहीं पहुँच सकता क्योंकि वह सरोवर
की परिधि में बंद है,
इसलिये समुद्र में
उसका समाहित होना असम्भव है। विचार किया जाये तो सरोवर के जल का उद्गम भी समुद्र
ही है और वह समुद्र का अंश है,
इसलिये उसे अपने
अंशी अर्थात् समुद्र से मिलना ही चाहिये। ग्रीष्मकाल की उष्णता के कारण समुद्र-जल
वाष्प बनकर उड़ा। उस ने मेघ का रुप धारण किया और पृथ्वी पर बरसा। वर्षा का जो जल
नदी नालों में एकत्र हुआ,
वह तो दौड़ता हुआ
समुद्र में जा मिला। परन्तु वर्षा के जो बूँद छोटे बड़े गढ़ों, झीलों तथा सरोवरों में जा एकत्र हुए, वह समुद्र नें नहीं मिल सकते। कारण यह कि वह
चारदीवारी में बंद हैं। इस कैद में पड़ा पड़ा वह जल कीच बनकर गंदा और खराब होगा, खड़ा-खड़ा सड़ता रहेगा, उसमें मच्छर मक्खी तथा अन्यान्य विषैले कीटों के
आवास बनेंगे। सड़ाँध और दुर्गन्ध उत्पन्न होगी। वह जल स्वयं खराब हुआ, लोगों में रोग फैलाने का हेतु भी बनेगा। परन्तु
जिस सागर का वह अंशज था और जिससे बिछुड़कर यहाँ आया था; उस अंशी तक लौट जाने की न कोई सम्भावना है, न आशा ही।
Jai Sachdanand ji.
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