कसतूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढे बन माहिं।
ऐसे ही घट में पीव है, दुनियाँ जानै नाहिं।।
तेरा सार्इं तुझ में, ज्योंं पुहपन में बास।
कसतूरी का मिरग ज्यों, फिरि फिरि ढूँढै घास।।
ऐसे ही घट में पीव है, दुनियाँ जानै नाहिं।।
तेरा सार्इं तुझ में, ज्योंं पुहपन में बास।
कसतूरी का मिरग ज्यों, फिरि फिरि ढूँढै घास।।
अर्थः-कसतूरी तो मृग की अपनी नाभि में ही विद्यमान है; किन्तु भ्रमवश वह उसे जंगल की झाड़ियों में तलाश करता रहता है। इसी प्रकार मनुष्य के घट ही में प्रभु की दिव्य ज्योति का दर्शन सहज सुलभ है; किन्तु संसारी प्राणी उससे बेखबर हैं। ऐ इन्सान! तेरा सच्चा मालिक तेरे अन्दर इस प्रकार समाया हुआ है, जिस प्रकार फूलों के अंदर सुगंधि बसी हुई रहती है, परन्तु जिस प्रकार कस्तूरी वाला हिरण उस सुगंधि को बार बार घास में ढूँढता और व्यर्थ परेशान होता है। इसी प्रकार तू भी अपने से बाहर सच्चे रुहानी सुख की खोज केवल भूल भरम के कारण करता फिरता है।
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